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Svayambhu Stotra-bhasha / स्वयंभूस्तोत्र-भाषा

मूल (संस्कृत) रचना :आचार्य समंतभद्र
भाषा (हिन्दी) अनुवाद : कविश्री द्यानतराय

विद्वानों, योगियों और त्यागी-तपस्वियों के स्वामी आचार्य समंतभद्र सोत्साह मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय असाता वेदनीय कर्म के प्रबल उदय से उन्हें ‘भस्मक’ नाम का महारोग हो गया। मुनिचर्या के दौरान इस रोग का शमन होना असंभव जानकर उन्होंने अपने गुरु से सल्लेखना धारण करने के लिए आज्ञा चाही| गुरु महाराज ने कहा कि आप के द्वारा जिन-शासन की विशेष प्रभावना होनी है, सल्लेखना का समय अभी नहीं आया है।

रोग-शमन हेतु तृप्त भोजन की आज्ञा लेकर आपने दिगम्बर वेष का त्याग किया और कांची में मलिन वेषधारी दिगम्बर रहे, राजा ने उन्हें सही-सही परिचय बताने के लिए कहा। समंतभद्र ने कहा कि मैं आचार्य हूँ, शास्त्रार्थियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैद्य हूँ, कवि हूँ, मांत्रिक-तांत्रिक हूँ, हे राजन! इस संपूर्ण पृथ्वी में मैं आज्ञा सिद्ध हूँ, अधिक क्या कहूँ, सिद्ध सारस्वत हूँ और अब आपके सम्मुख जैन-वादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले।

उन्होंने चौबीस तीथर्करों का स्तवन शुरु किया, जब वे आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का स्तवन कर रहे थे तब चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति प्रकट हो गई। स्तवन पूर्ण हुआ। यह स्तवन ‘स्वयंभूस्तोत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी कथा ब्र. नेमिदत्त कथाकोश के आधार पर है।

(चौपाई छन्द)

राजविषैं जुगलनि सुख कियो, राजत्याग भवि शिवपद लियो |
स्वयंबोध स्वयंभू भगवान्, वंदूं आदिनाथ गुणखान ||१||

इन्द्र क्षीरसागर जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय |
मदन विनाशक सुख करतार, वंदूं अजित अजित-पदकार ||२||

शुक्लध्यान करि करम विनाशि, घाति-अघाति सकल दु:ख राशि |
लह्यो मुकतिपद सुख अविकार, वंदूं संभव भव-दु:ख टार ||३||

माता पश्चिम रयन मँझार, सुपने देखे सोलह सार |
भूप-पूछि फल सुनि हरषाय, वंदूं अभिनंदन मन लाय ||४||

सब कुवादवादी सरदार, जीते स्याद्वाद-धुनि धार |
जैनधरम-परकाशक स्वाम, सुमतिदेव पद करहुँ प्रणाम ||५||

गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर-शोभा अधिकाय |
बरसे रतन पंचदश-मास, नमूं पदमप्रभ सुख की राश ||६||

इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र त्रिकाल, बानी सुनि-सुनि होहिं खुशाल |
द्वादश सभा ज्ञान-दातार, नमूं सुपारसनाथ निहार ||७||

सुगुन छियालिस हैं तुम माँहिं, दोष-अठारह कोऊ नाहिं |
मोह-महातम-नाशक दीप, नमूं चंद्रप्रभ राख समीप ||८||

द्वादशविध तप करम विनाश, तेरहविध-चारित्र प्रकाश |
निज अनिच्छ भवि इच्छकदान, वंदूं पुष्पदंत मन-आन ||९||

भवि-सुखदाय सुरग तें आय, दशविधि धरम कह्यो जिनराय |
आप-समान सबनि सुख देह, वंदूं शीतल धर्म-सनेह ||१०||

समता-सुधा कोप-विष-नाश, द्वादशांग-वानी परकाश |
चार संघ-आनंद-दातार, नमूं श्रेयांस जिनेश्वर सार ||११||

परम समाधि-स्वरूप जिनेश, ज्ञानी-ध्यानी हित-उपदेश |
कर्म नाशि शिव-सुख-विलसंत, वंदूं विमलनाथ भगवंत ||१३||

अंतर-बाहिर परिग्रह टारि, परम दिगंबर-व्रत को धारि |
सर्वजीव-हित-राह दिखाय, नमूं अनंत वचन मनलाय ||१४||

सात तत्त्व पंचासतिकाय, नव-पदार्थ छह द्रव्य बताय |
लोक अलोक सकल परकाश, वंदूं धर्मनाथ अविनाश ||१५||

पंचम चक्रवर्ति निधिभोग, कामदेव द्वादशम मनोग |
शांतिकरण सोलम-जिनराय, शांतिनाथ वंदूं हरषाय ||१६ ||

बहु थुति करे हरष नहिं होय, निंदे दोष गहें नहिं कोय |
शीलवान परब्रह्म-स्वरूप, वंदूं कुंथुनाथ शिवभूप ||१७||

द्वादश-गण पूजें सुखदाय, थुति-वंदना करें अधिकाय |
जाकी निज-थुति कबहुँ न होय, वंदूं अर जिनवर-पद दोय ||१८||

परभव रतनत्रय-अनुराग, इहभव ब्याह-समय वैराग |
बाल-ब्रह्म-पूरन-व्रत धार, वंदूं मल्लिनाथ जिनसार ||१९||

बिन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लोकांत करें पग लाग |
नम: सिद्ध कहि सब व्रत लेहिं, वंदूं मुनिसुव्रत व्रत देहिं ||२०||

श्रावक विद्यावंत निहार, भगति-भाव सों दियो अहार |
बरसी रतन-राशि तत्काल, वंदूं नमि प्रभु दीनदयाल ||२१||

सब जीवनि की बंदी छोड़ि, राग-द्वेष द्वै-बंधन तोर |
राजुल तजि शिव-तिय सों मिले, नेमिनाथ वंदूं सुख निले ||२२||

दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार |
गयो कमठ-शठ मुख कर श्याम, नमूं मेरुसम पारस स्वाम ||२३||

भव-सागर तें जीव अपार, धरम-पोत में धरे निहार |
डूबत काढ़े दया-विचार, वर्द्धमान वंदूं बहु-बार ||२४||

(दोहा)

चौबीसों पद-कमल-जुग, वंदूं मन वच काय |
‘द्यानत’ पढ़े सुने सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय | |