कपटी नर कोई साँच न बोले, अपने दिल की गाँठ न खोले,
करत प्रशंसा निशदिन अपनी, पर का औगण ढूंढत डोले ॥टेक॥
छल से हँस हँस बाताँ पूछे, अपने दिल की बात न बोले,
मीठा वचन सुणाय रिझावे, मिथ्या जहर हलाहल घोले,
कपटी नर कोई साँच न बोले, अपने दिल कौ गाँठ न खोले ॥१॥
ऊपर से किरिया बहु पालै, माँही चाबै विष किलौले,
ऐसा नर की संगति होवे, दुर्गति माँहि सहे जग झोलै,
कपटी नर कोई साँच न बोले, अपने दिल की गाँठ न खोले ॥
करत प्रशंसा निशदिन अपनी, पर का औगण ढूंढत डोले ॥२॥