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Dev – Shashtra – Guru Pooja (Ravindra Ji) / देव-शास्त्र-गुरु पूजा (रवीन्द्रजी)

कवि श्री रवीन्द्रजी

(पूजन विधि निर्देश)

देव-शास्त्र-गुरुवर अहो! मम स्वरूप दर्शाय |
किया परम उपकार मैं, नमन करूँ हर्षाय ||
जब मैं आता आप ढिंग, निज स्मरण सु आय |
निज प्रभुता मुझमें प्रभो! प्रत्यक्ष देय दिखाय ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)।
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)।
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरु समूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट् (सन्निधिकरणम्)।

(शंभू छन्द)

जब से स्व-सन्मुख दृष्टि हुई, अविनाशी ज्ञायक रूप लखा |
शाश्वत अस्तित्व स्वयं का लखकर, जन्म-मरणभय दूर हुआ ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

निज परमतत्त्व जब से देखा, अद्भुत शीतलता पाई है |
आकुलतामय संतप्त परिणति, सहज नहीं उपजाई है ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

निज अक्षयप्रभु के दर्शन से ही, अक्षयसुख विकसाया है |
क्षत् भावों में एकत्वपने का, सर्व विमोह पलाया है ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

निष्काम परम ज्ञायक प्रभुवर, जब से दृष्टि में आया है |
विभु ब्रह्मचर्य रस प्रकट हुआ, दुर्दान्त काम विनशाया है ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

मैं हुआ निमग्न तृप्ति सागर में, तृष्णा ज्वाल बुझाई है |
क्षुधा आदि सब दोष नशें, वह सहज तृप्ति उपजाई है ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

ज्ञान-भानु का उदय हुआ, आलोक सहज ही छाया है |
चिरमोह महातम हे स्वामी, इस क्षण ही सहज विलाया है ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

द्रव्य-भाव-नोकर्म शून्य, चैतन्य प्रभु जब से देखा |
शुद्ध परिणति प्रकट हुई, मिटती परभावों की रेखा ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

अहो पूर्ण निज वैभव लख, नहीं कामना शेष रही |
हो गया सहज मैं निर्वांछक, निज में ही अब मुक्ति दिखी ||
श्री देव-शास्त्र-गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

निज से उत्तम दिखे न कुछ भी, पाई निज अनर्घ्य माया |
निज में ही अब हुआ समर्पण, ज्ञानानन्द प्रकट पाया ||
श्री देव- शास्त्र -गुरुवर सदैव, मम परिणति में आदर्श रहो |
ज्ञायक में ही स्थिरता हो, निज भाव सदा मंगलमय हो ||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(दोहा)

ज्ञान मात्र परमात्मा, परम प्रसिद्ध कराय |
धन्य आज मैं हो गया, निज स्वरूप को पाय ||

(हरिगीता छन्द)

चैतन्य में ही मग्न हो, चैतन्य दरशाते अहो |
निर्दोष श्री सर्वज्ञ प्रभुवर, जगत्साक्षी हो विभो ||

सच्चे प्रणेता धर्म के, शिवमार्ग प्रकटाया प्रभो |
कल्याण वाँछक भविजनों, के आप ही आदर्श हो ||

शिवमार्ग पाया आप से, भवि पा रहे अरु पायेंगे |
स्वाराधना से आप सम ही, हुए, हो रहे, होयेंगे ||

तव दिव्यध्वनि में दिव्य-आत्मिक, भाव उद्घोषित हुए |
गणधर गुरु आम्नाय में, शुभ शास्त्र तब निर्मित हुए ||

निर्ग्रंथ गुरु के ग्रन्थ ये, नित प्रेरणाएं दे रहे |
निजभाव अरु परभाव का, शुभ भेदज्ञान जगा रहे ||

इस दुषम भीषण काल में, जिनदेव का जब हो विरह |
तब मात सम उपकार करते, शास्त्र ही आधार हैं ||

जग से उदास रहें स्वयं में, वास जो नित ही करें |
स्वानुभव मय सहज जीवन, मूल गुण परिपूर्ण हैं ||

नाम लेते ही जिन्हों का, हर्ष मय रोमाँच हो |
संसार-भोगों की व्यथा, मिटती परम आनन्द हो ||

परभाव सब निस्सार दिखते, मात्र दर्शन ही किए |
निजभाव की महिमा जगे, जिनके सहज उपदेश से ||

उन देव-शास्त्र-गुरु प्रति, आता सहज बहुमान है |
आराध्य यद्यपि एक, ज्ञायकभाव निश्चय ज्ञान है ||

अर्चना के काल में भी, भावना ये ही रहे |
धन्य होगी वह घड़ी, जब परिणति निज में रहे ||

ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

अहो कहाँ तक मैं कहूँ, महिमा अपरम्पार |
निज महिमा में मगन हो, पाऊं पद अविकार ||
।। पुष्पाजलिं क्षिपामि ।।