मलिन-वस्तु हर लेत सब, जल-स्वभाव मल-छीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||१||
चंदन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||२||
तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||३||
विविध भाँति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||४||
नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||५||
स्व-पर-प्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||६||
अग्निमाँहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||७||
जे प्रधान फल फल विषें, पंचकरण रस-लीन |
जा सों पूजूं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||८||
वसुविधि अर्घ संजोय के अति उछाह मन कीन |
जा सों पूजूं परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन ||९||
देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार |
भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ||१||
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि |
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छ्यालिस गुणगंभीर ||२||
शुभ समवसरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार |
देवाधिदेव अरिहंत देव, वंदौं मन वच तन करि सुसेव ||३||
जिनकी ध्वनि ह्वे ओंकाररूप, निर-अक्षरमय महिमा अनूप |
दश-अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत ||४||
सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सु-अंग |
रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय ||५||
गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय निधि अगाध |
संसार-देह वैराग्य धार, निरवाँछि तपें शिवपद निहार ||६||
गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव-तारन-तरन जिहाज र्इस |
गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपूँ मन वचन काय ||७||
कीजे शक्ति प्रमान शक्ति-बिना सरधा धरे |
‘द्यानत’ सरधावान अजर अमरपद भोगवे ||८||
रीजिन के परसाद ते, सुखी रहें सब जीव |
या ते तन-मन-वचनतें, सेवो भव्य सदीव ||९||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपामि।।