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Gyan Chalisa / ज्ञान चालीसा

पानी पीवे छानकर, जीव जन्तु बच जाएँ |
जीव दया अति पुण्य है, रोग निकट नहीं आयें ||1||
झूठे पुरषों से कभी, कोई न करता प्रीत |
अच्छे आदर पात हैं, जग जश लेते जीत ||2||
चोर नित्य चोरी करे, रहत ना कुछ भी पास |
वनों, पहाड़ों भागते, दोख पावें दिन-रात ||3||
सेय पराई नार को, तन मन धन खो देत |
फिर भी सुख मिलता नहीं, मौत भयानक लेट ||4||
जोड़ जोड़ संचय करे, परिग्रह अपरम्पार |
कितने दिन है जीना, क्यों नित ढोवें भर ||5||
कुटुंब मोह का जाल है, कोई ना जावे साथ |
भला-बुरा जो कर गया, बनी रहेगी गाथ ||6||
बीडी-मदिरा पीना नहीं, भालों का काम |
भांग आदि की लत बुरी, क्यों होते बदनाम ||7||
रोगी तन को ठीक कर, ब्रह्मचर्य को पाल |
बिन पैसे की यह दवा, दूर भगावे काल ||8||
मरा कौन सब पूछते, पूछ भूलते बात |
चाल चूक शतरंज की, हो जाती है मात ||9||
सुख दुःख निज की देखते, क्यों न लगावे ध्यान |
चिंता को अब छोडकर, धरो सम्यक् ज्ञान ||10||
कितने दिन को जीना, कितने धन की चाह |
ज्ञानी लेखा सोच के, मौलिक जीवन जांह ||11||
ऊपर से धर्मी बने, भीतर शुद्ध न एक |
रात दिवस इत उत फिरें, किस विध रहती टेक ||12||
कारज को करते चलो, तन मन वश में राख |
होगी निश्चय विजय, विपदा आवे लाख ||13||
पार अनेकों ही किये, मुक्ति किस विध होय |
छुटेंगे जंजाल सब, पाप मैल सब धोय ||14||
झूठा स्वार्थ छोडकर, सत को उर में धार |
इस भव अति शोभा बढे, आगे बेडा पार ||15||
पहले निज को शुद्ध कर, पीछे पर उपदेश |
जो कहते करते नहीं, वो पाते हैं क्लेश ||16||
भीतर देह घिनावनी, रोगों का है धाम |
जब तक परदा ठीक है, कर ले अपना काम ||17||
देख बुढ़ापे की दशा, थर थर कांपे गात |
बुरे बुरे दिन बीतते, कोई ना सुनता बात ||18||
पता किसी को ना पड़े, कब आवेगा काल |
क्यों माया से उलझता है, है मकड़ी का जाल ||19||
क्यों आया क्या कर गया, ज्ञानी पूछे बात |
लेखा कैसे देगा, क्या ले जाता साथ ||20||
पापी तू तर जायेगा, निश्चय यह ही मान |
पीछे की मत याद कर, आगे की पहचान ||21||
आये जो सब जायेंगे, जग की यह ही रीत |
थोड़े स्वास्थ्य के लिए, क्यों गाता है गीत ||22||
चाहे जितना हो भला, सुख दुःख का नही मेल |
कब दुःख कब सुख आ पड़े, देख जगत का खेल ||23||
रोग नहीं है छोड़ता, पापी हो या संत |
इससे बचने के लिए, पकड़ो आतम कन्त ||24||
घूम रहा संसार में कर कर उल्टी बात |
अब भी चेतन सोच ले, तज पुदगल तो तात ||25||
वृषशाला दिन तीन की, नए मुसाफिर आत |
तू कब तक रह जायेगा, सोच ज्ञान की बात ||26||
नाम लोक में कर्ण को, रुपया खर्चो लाख |
सच्ची सेवा के बिना, जम न सकेगी साख ||27||
मुर्ख जवानी जोर में, किये पाप भू घोर |
अब भी चेतन चेत जा, विषय धर्म के चोर ||28||
बीती ताहि विसार दे, आगे की सुध लेय |
प्याला विष का छोड़कर, आतम अमृत सेय ||29||
जीना मरना एक सा, मनुज धर्म को पाय|
आकर कुछ भी ना किया, झूठा रुदन मचाय ||30||
गंधक में परा मिला, तपे पृथक हो जाये |
इसी तरह यह आत्मा, तन जड़ से हट जाए ||31||
क्रोध कषाय है बुरी, समझो इसको आप |
मिनटों में झूट मारती, गिने ना माँ या बाप ||32||
शास्त्र अनेकों ही सुन, दिया न असली ध्यान |
पोथी पढ़-पढ़ रह गए, उर में हुआ ना ज्ञान ||33||
न्यारे-न्यारे पंथ यह, हट की करते बात |
सत कोई ना खोजता, मारग कैसे पात ||34||
अहंकार के कारणे, लड़ते दिन व रात |
घर को नर्क बना, तदपि न छुटी बात ||35||
लक्ष्मी चंचल है अति, सदा न रहती साथ |
दान न कौड़ी कर सका, जाता खली हाथ ||36||
सेवा जननी जनक की, तीरथ है घर माह |
क्यों जग में खोजत फिरे, कल्पतरु की छांव ||37||
पुण्य चीज़ कुछ और है, धर्म चीज़ कुछ और |
पुण्य जगत का खेल है, धर्म मोक्ष कुछ और ||38||
होनी है सो होएगी, मन में घीरज धार |
झूठा शकुन विचारता, क्या पावेगा पार ||39||
दुःख से बचने के लिए, छोड़ो घर की आस |
आतम बल सबसे बड़ा, सदा तुम्हारे पास ||40||