Click Here for Free Matrimonial Registration at Jain4Jain.com   Get Premuim Membership to Contact Profiles   

Jinvani Stuti / जिनवाणी स्तुति

सवैया

वीर हिमाचल तें निकसी गुरु गौतम के मुख-कुंड ढरी है |
मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ आतप दूर करी है ||

ज्ञान-पयोनिधि-माँहि रली, बहु-भंग-तरंगनि सों उछरी है |
ता शुचि-शारद-गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी करि शीश धरी है ||

या जग-मंदिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छयो अति-भारी |
श्री जिन की ध्वनि दीपशिखा-सम जो नहिं होति प्रकाशनहारी ||

तो किस भाँति पदारथ-पाँति! कहाँ लहते रहते अविचारी |
या विधि संत कहें धनि हैं धनि हैं जिन-बैन बड़े उपकारी ||

(दोहा)

जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोक-अलोक |
सो वाणी मस्तक नमूं, सदा देत हूँ धोक ||