सवैया
वीर हिमाचल तें निकसी गुरु गौतम के मुख-कुंड ढरी है |
मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ आतप दूर करी है ||
ज्ञान-पयोनिधि-माँहि रली, बहु-भंग-तरंगनि सों उछरी है |
ता शुचि-शारद-गंगनदी प्रति, मैं अंजुरी करि शीश धरी है ||
या जग-मंदिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छयो अति-भारी |
श्री जिन की ध्वनि दीपशिखा-सम जो नहिं होति प्रकाशनहारी ||
तो किस भाँति पदारथ-पाँति! कहाँ लहते रहते अविचारी |
या विधि संत कहें धनि हैं धनि हैं जिन-बैन बड़े उपकारी ||
(दोहा)
जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोक-अलोक |
सो वाणी मस्तक नमूं, सदा देत हूँ धोक ||