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Kshamavani Parv-Pooja / क्षमावणी पर्व-पूजा

कविश्री मल्ल

(पूजन विधि निर्देश)

(छप्पय छन्द)

अंग-क्षमा जिन-धर्म तनों दृढ़-मूल बखानो |
सम्यक्-रतन संभाल हृदय में निश्चय जानो ||
तज मिथ्या-विषमूल और चित निर्मल ठानो |
जिनधर्मी सों प्रीति करो सब-पातक भानो ||
रत्नत्रय गह भविक-जन, जिन-आज्ञा सम चालिए |
निश्चय कर आराधना, कर्मराशि को जालिये ||
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र अवतर अवतर संवौषट्!(आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)।
ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप-रत्नत्रय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)।

नीर सुगन्ध सुहावनो, पदम-द्रह को लाय |
जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक्-रत्न लहाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो….||
ॐ ह्रीं श्री निशंकितांगाय नम:, निकांक्षितांगाय नम:, निर्विचिकित्सांगाय नम:, निर्मूढ़तायै नम:, उपगूहनांगाय नम:, स्थितिकरणांगाय नम:, वात्सल्यांगाय नम:, प्रभावनांगाय नम:, व्यंजनव्यंजिताय नम:,अर्थसमग्रयाय नम:, तदुभय- समग्रयाय नम:, कालाध्ययनाय नम:, उपध्यानोपन्हिताय नम:, विनयलब्धि -सहिताय नम:, गुरुवादापन्हवाय नम:, बहुमानोन्मानाय नम:, अहिंसाव्रताय नम:, सत्यव्रताय नम:, अचौर्यव्रताय नम:, ब्रह्मचर्यव्रताय नम:, अपरिग्रहव्रताय नम:, मनोगुप्त्यै नम:, वचनगुप्त्यै नम:, कायगुप्त्यै नम:, ईर्यासमित्यै नम:, भाषासमित्यै नम:, एषणासमित्यै नम:, आदाननिक्षेपणसमित्यै नम:, प्रतिष्ठापनासमित्यै नम: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

केसर चंदन लीजिये, संग-कपूर घसाय |
अलि पंकति आवत घनी, वास सुगंध सुहाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो….||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

शालि अखंडित लीजिए, कंचन-थाल भराय |
जिनपद पूजूं भाव सों, अक्षय पद को पाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन- अष्टांगगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगन्ध गुलाब |
श्रीजिन-चरण सरोज कूँ, पूज हरष चित-चाव ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो…….||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

शक्कर घृत सुरभी तनों, व्यंजन षट्-रस-स्वाद |
जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……..||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार |
शोधित घृत कर पूजिये, मोह-तिमिर निरवार ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो…….||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविध जान |
जिन-चरणन ढिंग खेइये, अष्ट-करम की हान ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो……..||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध्-सम्यक्चारित्रेभ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

केला अम्ब अनार फल, नारिकेल ले दाख |
अग्र धरूं जिनपद तने, मोक्ष होय जिन भाख ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय | क्षमा गहो………||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध-सम्यक्चारित्रेभ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

जल-फल आदि मिलायके, अरघ करो हरषाय |
दु:ख-जलांजलि दीजिए, श्रीजिन होय सहाय ||
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर-वचन गहाय |
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रायोदशविध्-सम्यक्चारित्रोभ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

जयमाला

(दोहा)

उनतिस-अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय |
मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर-भव पाय ||१||

(चौपाई छन्द)

जैनधर्म में शंक न आने, सो नि:शंकित गुण चित ठाने |
जप तप का फल वाँछे नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माँहीं ||२||

पर को देखि गिलान न आने, सो तीजा सम्यक् गुण ठाने |
आन देव को रंच न माने, सो निर्मूढ़ता गुण पहिचाने ||३||

पर को औगुण देख जु ढाँके, सो उपगूहन श्रीजिन भाखे |
जैनधर्म तें डिगता देखे, थापे बहुरि थितिकर लेखे ||४||

जिन-धर्मी सों प्रीति निबहिये, गऊ-बच्छावत् वच्छल कहिये |
ज्यों त्यों जैन-उद्योत बढ़ावे, सो प्रभावना-अंग कहावे ||५||

अष्ट-अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टि कहिये सोई |
अब गुण-आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये ||६||

व्यंजन-अक्षर-सहित पढ़ीजे, व्यंजन-व्यंजित अंग कहीजे |
अर्थ-सहित शुध-शब्द उचारे, दूजा अर्थ-समग्रह धारे ||७||

तदुभय तीजा-अंग लखीजे, अक्षर-अर्थ-सहित जु पढ़ीजे |
चौथा कालाध्ययन विचारे, काल समय लखि सुमरण धारे ||८||

पंचम अंग उपधान बतावे, पाठ सहित तब बहु फल पावे |
षष्टम विनय सुलब्धि सुनीजे, वानी विनयसु पढ़ीजे ||९||

जापै पढ़ै न लौपै जाई, सप्तम अंग गुरुवाद कहाई |
गुरु की बहुत विनय जु करीजे, सो अष्टम-अंग धर सुख लीजे ||१०||

ये आठों अंग ज्ञान बढ़ावें, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावें |
अब आगे चारित्र सुनीजे, तेरह-विध धर शिवसुख लीजे ||११||

छहों काय की रक्षा करिए, सोई अहिंसा व्रत चित धरिए |
हित मित सत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये ||१२||

मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्य व्रत चित धरिये |
मन्मथ-भय मन रंच न आने, सो मुनि ब्रह्मचर्य-व्रत ठाने ||१३||

परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच-महाव्रत-धारक सोई |
ये पाँचों महाव्रत सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं ||१४||

मन में विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई |
वचन अलीक रंच नहिं भाखें, वचनगुप्ति सो मुनिवर राखें ||१५||

कायोत्सर्ग परीषह सहे हैं, ता मुनि कायगुप्ति जिन कहे हैं |
पंच समिति अब सुनिए भाई, अर्थ-सहित भाषे जिनराई ||१६||

हाथ-चार जब भूमि निहारें, तब मुनि ईर्या-मग पद धारें |
मिष्ट वचन मुख बोले सोई, भाषा-समिति तास मुनि होई ||१७||

भोजन छयालिस दूषण टारे, सो मुनि एषण-शुद्धि विचारे |
देख के पोथी लें रु धरे हैं, सो आदान-निक्षेपन वरे हैं ||१८||

मल-मूत्र एकांत जु डारें, परतिष्ठापन समिति संभारें |
यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधरन गहे हैं ||१९||

आठ-आठ तेरहविध जानो, दर्शन-ज्ञान-चारित्र सु ठानो |
ता तें शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई ||२०||

रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई |
चैत माघ भादों त्रय बारा, क्षमा-पर्व हम उर में धारा ||२१||

(दोहा)

यह ‘क्षमावणी’-आरती, पढ़े-सुने जो कोय |
कहे ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति-श्रीफल होय ||२२||
ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविध सम्यक्चारित्रेभ्यो जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

(सोरठा)

दोष न गहिये कोय, गुण-गण गहिये भावसों |
भूल-चूक जो होय, अर्थ-विचारि जु शोधिये ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।