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Nai Bahiyo Ke Muhrat Ki Vidhi / नई बहियों के मुहूर्त की विधि

सामग्री अष्टद्रव्य धुले हुए, धूपदान, दीपक, लाल कपड़ा, सरसों, दो थालियाँ, श्रीफल, जल भरा कलश, नाला (धागा), शास्त्रजी, धूप, अगरबत्ती, पाटे, दो चौकियाँ, कुंकुम, केशर घिसी हुई, कोरे पान, दवात, कलम, फूलमालाएं, सिंदूर घी में मिलाकर (श्री महावीराय नम: और शुभ लाभ दुकान की दीवाल पर लिखने को), नई बहियाँ, आदि।
सायंकाल को उत्तम गोधूलिक लग्न में अपनी दुकान के पवित्र स्थान में नई बहियों का नवीन संवत् से शुभ मुहूर्त करें। उसके लिये ऊँची चौकी पर थाली में केशर से ‘श्री महावीराय नम:’ लिखकर शास्त्रजी विराजमान करें, और दूसरी चौकी पर एक थाली में स्वस्तिक मांडकर सामग्री चढ़ाने के लिये रखें। दाहिनी ओर घी का दीपक, बाँई ओर धूपदान रहना चाहिये। दीपक में घृत इस प्रमाण से डाला जाय कि रात्रि भर वह दीपक जलता रहे। अष्ट द्रव्य-जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल व अर्घ्य बनावें। बहियाँ, दवात, कलम आदि पास में रख लें। पूजा करने के लिये पूजकों को पूर्व या उत्तर-दिशा में मुख करके बैठना चाहिए। पूजा गृहस्थाचार्य द्वारा या स्वयं करनी चाहिए। सर्वप्रथम पूजन में बैठे हुए सभी सज्जनों को तिलक लगाना चाहिये। उस समय यह श्लोक पढ़ें :-
मंगलं भगवान् वीरो, मगलं गौतमो गणी |
मंगलं कुंदकुंदाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ||

पश्चात् इस प्रकार पूजा प्रारम्भ करें-

अरिहन्तो भगवन्त इन्द्रमहिता: सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा: |
आचार्या: जिनशासनोन्नतिकरा: पूज्या उपाध्यायका: ||
श्रीसिद्धांत-सुपाठका:, मुनिवरा रत्नत्रयाराधका: |
पंचैते परमेष्ठिन: प्रतिदिनं कुर्वन्तु न: मंगलम् ||

ॐ जय जय जय! नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु!
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।

ॐ ह्रीं अनादि-मूलमंत्रेभ्यो नम:।
(पुष्पांजलि क्षेपण करें)

चत्तारि मंगलं| अरिहंत मंगलं| सिद्ध मंगलं| साहू मंगलं| केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं| चत्तारि लोगुत्तमा|अरिहंत लोगुत्तमा| सिद्ध लोगुत्तमा| साहू लोगुत्तमा| केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो | चत्तारि सरणं पव्वज्जामि| अरिहंत सरणं पव्वज्जामि| सिद्धसरणं पव्वज्जामि| साहू सरणं पव्वज्जामि| केवलि पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि|
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा।
(पुष्पांजलि क्षेपण करें और निम्न अर्घ्य चढ़ायें)

श्री देव-शास्त्र-गुरु का अर्घ्य

जल परम-उज्ज्वल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूँ |
वर-धूप निरमल-फल विविध बहु-जनम के पातक हरूँ ||
इह-भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिव-पंकति मचूँ |
अरिहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ||
वसुविधि-अर्घ संजोय के, अति-उछाह मन कीन |
जा सों पूजूं परम-पद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

विहरमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य

जल-फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर-भर थाल |
नमूं कर जोड़, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर ||
पाँचों मेरु विदेह सुथान, तीर्थंकर जिन बीस महान् |
नमूं कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर ||
ॐ ह्रीं श्रीविदेहक्षेत्रस्य श्रीसीमंधरादि विंशति तीर्थंकरेभ्य:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

तीन लोक स्थित जिनबिम्बों का अर्घ्य
यावंति जिनचैत्यानि, विद्यन्ते भुवनत्रये |
तावन्ति सततं भक्त्या, त्रि: परीत्य नमाम्यहम् ||
ॐ ह्रीं श्रीत्रिलोक-सम्बधि-जिनेन्द्र-बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

सिद्ध परमेष्ठी का अर्घ्य

जल-फल वसु वृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा |
मेटो भवफंदा सब दु:ख-दंदा, हीराचंदा तुम वंदा ||
त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवननामी, अंतरजामी अभिरामी |
शिवपुर-विश्रामी, निज-निधि-पामी, सिद्ध-जजामी सिरनामी ||
ॐ ह्रीं श्रीअनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

चौबीस तीर्थंकरों का अर्घ्य

जल-फल आठों शुचि-सार, ताको अर्घ करूं |
तुमको अरपूं भवतार, भव तरि मोक्ष वरूं ||
चौबीसों श्री जिनचंद, आनंदकंद सही |
पद जजत हरत भव फंद, पावत मोक्ष-मही ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादि-वीरांत-चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

(इसके बाद श्री महावीर-जिन-पूजा (पृष्ठ 131) करें। तत्पश्चात् आगे दी हुई सरस्वती-पूजन आदि करें)