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Navdevta Pooja / नवदेवता पूजा

(गीता छन्द)

अरिहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु त्रिभुवन-वंद्य हैं | जिनधर्म जिन-आगम जिनेश्वर, मूर्ति जिनगृह वंद्य हैं ||

नवदेवता ये मान्य जग में, हम सदा अर्चा करें | आह्वान कर थापें यहाँ, मन में अतुल-श्रद्धा धरें ||

ॐ ह्रीं श्री अरिहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनधर्म जिनागम जिनचैत्य जिनचैत्यालय समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री अरिहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनधर्म जिनागम जिनचैत्य जिनचैत्यालय समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ!: (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री अरिहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधू जिनधर्म जिनागम जिनचैत्य जिनचैत्यालय समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)

(अष्टक)

गंगानदी का नीर निर्मल बाह्य-मल धोवे सदा |
अंतर्-मलों के क्षालने को नीर से पूजूँ मुदा ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।

कर्पूर-मिश्रित गंध-चंदन देह-ताप निवारता |
तुम पाद-पंकज पूजते मनताप तुरतहिं वारता ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।

क्षीरोदधि के फेन-सम सित-तंदुलों को लायके |
उत्तम अखंडित-सौख्य हेतु पुंज नव सु चढ़ायके ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।

चंपा चमेली केवड़ा, नाना सुगंधित ले लिये |
भव के विजेता आपको, पूजत सुमन अर्पण किये ||
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।

पायस मधुर पकवान मोदक आदि को भर थाल में |
निज-आत्म अमृत-सौख्य हेतु पूजहूँ नत-भाल मैं ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य:.क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

कर्पूर-ज्योति जगमगे दीपक लिया निज-हाथ में |
तुव आरती तम वारती पाऊँ सुज्ञान प्रकाश मैं ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।

दशगंध-धूप अनूप सुरभित, अग्नि में खेऊँ सदा |
निज-आत्मगुण-सौरभ उठे, हों कर्म सब मुझसे विदा ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य:अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।

अंगूर अमरख आम्र अमृत फल भराऊँ थाल में |
उत्तम अनूपम मोक्षफल के हेतु पूजूँ आज मैं ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंत सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: मोक्षपफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।

जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक सुधूप फलार्घ्य ले |
वर रत्नत्रयनिधि लाभ यह बस अर्घ्य से पूजत मिले ||
नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें |
सब सिद्धि नवनिधि ऋद्धि मंगल पाय शिवकांता वरें ||
ॐ ह्रीं श्री अरिहंत सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं र्निर्वपामीति स्वाहा।९।

(दोहा)

जलधारा से नित्य मैं, जग की शांति-हेत |
नवदेवों को पूजहूँ, श्रद्धा-भक्ति समेत ||१०||

शांतये शांतिधारा!

नानाविध के सुमन ले, मन में बहु हरषाय |
मैं पूजूँ नवदेवता, पुष्पांजली चढ़ाय ||११||
दिव्य-पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।

(निम्नलिखित जाप्य-मंत्र का 9 या 27 या 108 बार जाप करें।)
ॐ ह्रीं श्री अरिहंतधाचार्योपासिद्ध्यायसर्वसाधूजिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्य: नम:।

(सोरठा छन्द)

चिच्चिंतामणि रत्न, तीन लोक में श्रेष्ठ हो |
गाऊँ गुण मणिमाल, जयवंते वरतों सदा ||१||

(चाल-हे दीनबंधु श्रीपति…)
जय जय श्री अरिहंत देव देव हमारे |
जय घातिया को घात सकल जंतु उबारे ||
जय जय प्रसिद्ध सिद्ध की मैं वंदना करूँ |
जय अष्ट-कर्म-मुक्त की मैं अर्चना करूँ ||२||

आचार्यदेव गुण छत्तीस धार रहे हैं |
दीक्षादि दे असंख्य भव्य तार रहे हैं ||
जयवंत उपाध्याय गुरु ज्ञान के धनी |
सन्मार्ग के उपदेश की वर्षा करें घनी ||३||

जय साधु अठार्इस गुणों को धरें सदा |
निज आत्मा की साधना से च्युत न हों कदा ||
ये पंच परमदेव सदा वंद्य हमारे |
संसार विषम सिंधु से हमको भी उबारें ||४||

जिन धर्मचक्र सर्वदा चलता ही रहेगा |
जो इसकी शरण ले वो सुलझता ही रहेगा ||
जिन की ध्वनि पीयूष का जो पान करेंगे |
भवरोग दूरकर वे मुक्तिकांत बनेंगे ||५||

जिनचैत्य की जो वंदना त्रिकाल करे हैं |
वे चित्स्वरूप नित्य आत्मलाभ करे हैं ||
कृत्रिम व अकृत्रिम जिनालयों को जो भजें |
वे कर्मशत्रु जीत शिवालय में जा बसें ||६||

नवदेवताओं की जो नित आराधना करें |
वे मृत्युराज की भी तो विराधना करें ||
मैं कर्मशत्रु जीतने के हेतु ही जजूँ |
संपूर्ण ‘ज्ञानमती’ सिद्धि हेतु ही भजूँ ||७||

(दोहा)

नवदेवों को भक्तिवश, कोटि-कोटि प्रणाम |
भक्ती का फल मैं चहूँ, निजपद में विश्राम ||८||
ॐ ह्रीं श्रीअरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधू-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्य:जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(गीता छन्द)

जो भव्य श्रद्धा भक्ति से नवदेवता पूजा करें |
वे सब अमंगल दोष हर सुख-शांति में झूला करें ||
नवनिधि अतुल-भंडार ले फिर मोक्ष सुख भी पावते |
सुख सिंधु में हो मग्न फिर यहाँ पर कभी नहीं आवते ||
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
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