सर्वारथ-सिद्धि तें चये, मरुदेवी उर आय |
दोज असित आषाढ़ की, जजूँ तिहारे पाँय ||१||
चैत वदी नौमी दिना, जन्म्या श्री भगवान |
सुरपति उत्सव अति कर्यो, मैं पूजूं धरि ध्यान ||२||
तृणवत् ऋद्धि सब छांड़ि के तप धार्यो वन जाय |
नौमी-चैत्र-असेत की जजूँ तिंहारे पाँय ||३||
फाल्गुन-वदि-एकादशी, उपज्यो केवलज्ञान |
इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजूं यह थान ||४||
माघ-चतुर्दशि-कृष्ण की, मोक्ष गये भगवान |
भवि जीवों को बोध के, पहुँचे शिवपुर थान ||५||
आदीश्वर महाराज, मैं विनती तुम से करूँ |
चारों गति के माहिं, मैं दु:ख पायो सो सुनो ||१||
ये अष्ट-कर्म मैं हूँ एकलो ये दुष्ट महादु:ख देत हो |
कबहूँ इतर-निगोद में मोकूँ पटकत करत अचेत हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||२||
प्रभु! कबहुँक पटक्यो नरक में, जठे जीव महादु:ख पाय हो |
निष्ठुर निरदर्इ नारकी, जठै करत परस्पर घात हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||३||
कोइयक बांधे खंभ सों पापी दे मुग्दर की मार हो |
कोइयक काटे करौत सों पापी अंगतणी देय फाड़ हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||४||
इहविधि दु:ख भुगत्या घणां, फिर गति पार्इ तिरियंच हो |
हिरणा बकरा बाछला पशु दीन गरीब अनाथ हो |
पकड़ कसार्इ जाल में पापी काट-काट तन खांय हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||५||
मैं ऊँट बलद भैंसा भयो, जा पे लाद्यो भार अपार हो |
नहीं चाल्यो जब गिर पड़्यो, पापी दें सोंटन की मार हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||६||
कोइयक पुण्य-संयोग सूं, मैं तो पायो स्वर्ग-निवास हो |
देवांगना संग रमि रह्यो, जठै भोगनि को परिताप हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||७||
संग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति-अनुराग हो |
कबहुँक नंदन-वन विषै, प्रभु कबहुँक वनगृह-माँहिं हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||८||
यहि विधिकाल गमायके, फिर माला गर्इ मुरझाय हो |
देव-थिति सब घट गर्इ, फिर उपज्यो सोच अपार हो |
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||
सोच करत तन खिर पड्यो, फिर उपज्यो गरभ में जाय हो |
सोच करत तन खिर पड्यो, फिर उपज्यो गरभ में जाय हो |
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||९||
गर्भतणा दु:ख अब कहूँ, जठै सकुड़ार्इ की ठौर हो |
हलन चलन नहिं कर सक्यो, जठै सघन-कीच घनघोर हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१०||
माता खावे चरपरो, फिर लागे तन संताप हो |
जो जननी तातो भखे, फिर उपजे तन संताप हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||११||
औंधे-मुख झूल्यो रह्यो, फेर निकसन कौन उपाय हो |
कठिन कठिन कर नीसर्यो, जैसे निसरे जंत्री में तार हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१२||
निकसत ही धरत्यां पड्यो, फिर लागी भूख अपार हो |
रोय-रोय बिलख्यो घनो, दु:ख-वेदन को नहिं पार हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१३||
दु:ख-मेटन समरथ धनी, या तें लागूँ तिहारे पांय हो |
सेवक अर्ज करे प्रभु मोकूँ, भवदधि-पार उतार हो ||
म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१४||
श्री जी की महिमा अगम है, कोर्इ न पावे पार |
मैं मति-अल्प अज्ञान हूँ, कौन करे विस्तार ||१५||
विनती ऋषभ जिनेश की, जो पढ़सी मन ल्याय |
सुरगों में संशय नहीं, निश्चय शिवपुर जाय ||१६||
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।