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Shri Chandraprabhu Ji Pooja Dehra / श्री चंद्रप्रभु जी पूजा देहरा

शुभ पुण्य-उदय से ही प्रभुवर! दर्शन तेरा कर पाते हैं |
केवल दर्शन से ही प्रभु, सारे पाप मेरे कट जाते हैं ||
देहरे के चंद्रप्रभ-स्वामी! आह्वानन करने आया हूँ |
मम हृदय-कमल में आ तिष्ठो! तेरे चरणों में आया हूँ ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वानम्)
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सत्रिधिकरण)

(अथाष्टक)

भोगों में फँसकर हे प्रभुवर! जीवन को वृथा गँवाया है |
इस जन्म-मरण से मुझे नहीं, छुटकारा मिलने पाया है ||
मन में कुछ भाव उठे मेरे, जल झारी में भर लाया हूँ |
मन के मिथ्या-मल धोने को, चरणों में तेरे आया हूँ ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

निज-अंतर शीतल करने को,चंदन घिसकर ले आया हूँ |
मन शांत हुआ ना इससे भी, तेरे चरणों में आया हूँ ||
क्रोधादि कषायों के कारण, संतप्त-हृदय प्रभु मेरा है |
शीतलता मुझको मिल जाये, हे नाथ! सहारा तेरा है ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

पूजा में ध्यान लगाने को, अक्षत धोकर ले आया हूँ |
चरणों में पुंज चढ़ाकर के, अक्षयपद पाने आया हूँ ||
निर्मल आत्मा होवे मेरी, सार्थक पूजा तब तेरी है |
निज शाश्वत अक्षयपद पाऊँ, ऐसी प्रभु विनती मेरी है ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

पर-गंध मिटाने को प्रभुवर, यह पुष्प सुगंधी लाया हूँ |
तेरे चरणों में अर्पित कर, तुम-सा ही होने आया हूँ ||
हे चन्द्रप्रभु! यह अरज मेरी, भवसागर पार लगा देना |
यह काम-अग्नि का रोग बड़ा, छुटकारा नाथ दिला देना ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

दु:ख देती है तृष्णा मुझको, कैसे छुटकारा पाऊँ मैं |
हे नाथ! बता दो आज मुझे, चरणों में शीश झुकाऊँ मैं ||
यह क्षुधा मिटाने को प्रभुवर, नैवेद्य बनाकर लाया हूँ |
हे नाथ! मिटा दो क्षुधा मेरी, भव-भव में फिरता आया हूँ ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

यह दीपक की ज्योति प्यारी, अंधियारा दूर भगाती है |
पर यह भी नश्वर है प्रभुवर, झंझा इसको धमकाती है ||
हे चंद्रप्रभु! दे दो ऐसा, दीपक अज्ञान मिटा डाले |
मोहांधकार हो नष्ट मेरा, यह ज्योति नर्इ मन में बाले ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

शुभ धूप दशांग बना करके, पावक में खेऊँ हे प्रभुवर |
क्षय कर्मों का प्रभु हो जावे, जग का झंझट सारा नश्वर ||
हे चंद्रप्रभु! अन्तर्यामी, कैसे छुटकारा अब पाऊँ |
हे नाथ! बता दो मार्ग मुझे, चरणों पर बलिहारी जाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

पिस्ता बादाम लवंगादिक, भर थाली प्रभु मैं लाया हूँ |
चरणों में नाथ चढ़ा करके, अमृत-रस पीने आया हूँ ||
करुणा के सागर दया करो, मुक्ति का मारग अब पाऊँ |
दे दो वरदान प्रभु ऐसा, शिवपुर को हे प्रभुवर जाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

जल चंदन अक्षत पुष्प चरु, दीपक घृत से भर लाया हूँ |
दस-गंध धूप फल मिला अर्घ ले, स्वामी अति-हरषाया हूँ ||
हे नाथ! अनर्घ्य-पद पाने को, तेरे चरणों में आया हूँ |
भव-भव के बंध कटें प्रभुवर! यह अरज सुनाने आया हूँ ||
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

पंचकल्याणक-अर्घ्यावली

(शंभु छन्द)

जब गर्भ में प्रभुजी आये थे, इन्द्रों ने नगर सजाया था |
छ: मास प्रथम ही आकर के, रत्नों का मेह बरसाया था ||
तिथि चैत्र-वदी-पंचम प्यारी, जब गर्भ में प्रभुजी आये थे |
लक्ष्मणा माता को पहले ही, सोलह सपने दिखलाये थे ||
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-पंचम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

शुभ-बेला में प्रभु जन्म हुआ, वदि-पौष-एकादशि थी प्यारी |
श्री महासेन-नृप के घर में, हुर्इ जय-जयकार बड़ी भारी ||
पांडुकशिला पर अभिषेक किया, सब देव मिले थे चतुर्निकाय |
सो जिनचंद्र जयो जग-माँहीं, विघ्नहरण और मंगलदाय ||
ॐ ह्रीं पौष-कृष्ण-एकादश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

जग के झंझट से मन ऊबा, तप की ली प्रभुजी ने ठहराय |
पौष-वदी-ग्यारस को इंद्र ने, तप-कल्याण कियो हरषाय ||
सर्वर्तुक-वन में जाय विराजे, केशलोंच जिन कियो हरषाय |
देहरे के श्री चंद्रप्रभु को, अर्घ्य चढ़ाऊँ नित्य बनाय ||
ॐ ह्रीं पौष-कृष्ण-एकादश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।

फाल्गुन-वदी-सप्तमी के दिन, चार घातिया घात महान |
समवसरण-रचना हरि कीनी, ता दिन पायो केवलज्ञान ||
साढ़े आठ योजन परमित था, समवसरण श्री जिन भगवान |
ऐसे श्री जिन चंद्रप्रभ को, अर्घ्य चढ़ाय करूँ नित ध्यान ||
ॐ ह्रीं फाल्गुन-कृष्ण-सप्तम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीचद्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

शुक्ला-फाल्गुन-सप्तमि के दिन, ललितकूट शुभ उत्तम-थान |
श्री जिन चंद्रप्रभु जगनामी, पायो आतम शिव-कल्याण ||
वसु कर्म जिन चन्द्र ने जीते, पहुँचे स्वामी मोक्ष-मँझार |
निर्वाण महोत्सव कियो इंद्र ने, देव करें सब जय-जयकार ||
ॐ ह्रीं फाल्गुन-कृष्ण-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

श्रावण-सुदी-दशमी को प्रभु जी, प्रकट भये देहरे में आन |
संवत तेरह दो सहस्र ऊपर,शुभ गुरुवार को ता दिन जान ||
जय-जयकार हुर्इ देहरे में, प्रकट हुए जब श्री भगवान् |
चरणों में आ अर्घ्य चढ़ाऊँ, प्रभु के दर्शन सुख की खान ||
ॐ ह्रीं श्रावण-शुक्ल-दशम्यां देहरास्थाने प्रकटरूपाय श्रीचंद्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

जयमाला

हे चंद्रप्रभु! तुम जगतपिता, जगदीश्वर, तुम परमात्मा हो |
तुम ही हो नाथ अनाथों के, जग को निज आनंददाता हो | |१|

इन्द्रियों को जीत लिया तुमने, ‘जितेन्द्र’ नाथ कहाये हो |
तुम ही हो परम-हितैषी प्रभु, गुरु तुम ही नाथ कहाये हो | |२|

इस नगर तिजारा में स्वामी, ‘देहरा’ स्थान निराला है |
दु:ख दु:खियों का हरनेवाला, श्री चंद्र नाम अतिप्यारा है | |३|

जो भावसहित पूजा करते, मनवाँछित फल पा जाते हैं |
दर्शन से रोग नशें सारे, गुण-गान तेरा सब गाते हैं | |४|

मैं भी हूँ नाथ शरण आया, कर्मों ने मुझको रौंदा है |
यह कर्म बहुत दु:ख देते हैं, प्रभु! एक सहारा तेरा है | |५|

कभी जन्म हुआ कभी मरण हुआ, हे नाथ! बहुत दु:ख पाया है |
कभी नरक गया कभी स्वर्ग गया, भ्रमता-भ्रमता ही आया है | |६|

तिर्यंच-गति के दु:ख सहे, ये जीवन बहुत अकुलाया है |
पशुगति में मार सही भारी, बोझा रख खूब भगाया है | |७|

अंजन से चोर अधम तारे, भव-सिन्धु से पार लगाया है |
सोमा की सुन करके टेर प्रभु! नाग को हार बनाया है | |८|

मुनि समंतभद्र को हे स्वामी, आ चमत्कार दिखलाया है |
कर चमत्कार को नमस्कार, चरणों में शीश झुकाया है | |९|

इस पंचमकाल में हे स्वामी! क्या अद्भुत-महिमा दिखलार्इ |
दु:ख दु:खियों का हरनेवाली, देहरे में प्रतिमा प्रकटार्इ | |१०|

शुभ पुण्य-उदय से हे स्वामी! दर्शन तेरा करने आया हूँ |
इस मोह-जाल से हे स्वामी! छुटकारा पाने आया हूँ | |११|

श्री चंद्रप्रभ! मोरी अर्ज सुनो, चरणों में तेरे आया हूँ |
भवसागर पार करो स्वामी! यह अर्ज सुनाने आया हूँ | |१२|
ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

देहरे के श्री चंद्र को, भाव-सहित जो ध्याय |
‘मुंशी’ पावे सम्पदा, मनवाँछित फल पाय ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।