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Shri Gautam – Gandhardev Ki Pooja / श्री गौतम-गणधरदेव की पूजा

कवियत्री अरुणा जैन ‘भारती’

कुसुमलता छन्द

मगधदेश के गौतमपुर में, वसुभूति ब्राह्मण थे श्रेष्ठ |
माता पृथ्वीदेवी के थे, पुत्र तीन इन्द्रभूति ज्येष्ठ ||
हुए प्रथम गणधर श्री वीर के, द्वादशांग का ज्ञान लिया |
प्रभु के पावन पथ पर चलकर, अपना भी कल्याण किया ||
वीर-देशना को गुंजित करके, जग को सुज्ञान दिया |
तुम सम बनने को ही स्वामी! मैं ने तुव आह्वान किया ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिन् ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिन् ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्रीगौतम गणधर स्वामिन् ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)

अष्टक

श्री गुरुवर के चरणों में, प्रासुक जलधार कराऊँ |
जन्म मरण का रोग मिटे, बस ये ही आस लगाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

गुरु पद वंदन करने को, शीतल चंदन घिस लाऊँ |
भव आताप मिट जाए मेरा, अत: गुरु गुण गाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

तंदुल धवल अखंडित लेकर, जिनवर-पूज रचाऊँ |
अक्षय पद पा जाऊँ अपना, सोच-सोच हर्षाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

पुष्प सुगंधित मकरंद मंडित, भाँति भाँति के लाऊँ |
काम-वासनायें मिट जायें, आतम ध्यान लगाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

नाना व्यंजन मिष्ट बनाकर, स्वर्णथाल में लाऊँ |
हे प्रभु क्षुधा रोग मिट जाए, परम शांति पा जाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

दीप प्रज्ज्वलित अर्पण करके, ज्ञान की ज्योति जलाऊँ |
काल अनादि से छाया यह, मोह तिमिर विघटाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ।
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत-पद पाऊँ।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

अगर तगर कालागुरु चंदन की सुवास फैलाऊँ |
मानों वसुकर्मों की दुर्गन्ध, इस विधि दूर भगाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

श्रीफलादि अतिश्रेष्ठ फलों को, प्रभु चरणों में लाऊँ |
मुक्ति मार्ग पर चलकर मैं भी, जीवन सफल बनाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

आठों द्रव्य मिलाकर के मैं, मनहर अर्घ बनाऊँ |
निज अनर्घपद के पाने को, गीत प्रभु के गाऊँ ||
परम पूज्य गौतम स्वामी के, पद पंकज नित ध्याऊँ |
गुरुवाणी पर श्रद्धा करके, निज शाश्वत पद पाऊँ ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

जयमाला

(चौपाई)

जय-जय जय-जय गौतम गणेश, तुमने सब कर्म किए नि:शेष |
हम भी अपने आतम के काज, तुम चरणों में आए हैं आज ||

तुम ज्ञान मान के मतवारे, सब विद्या के जानन हारे |
पर जब तक नहिं प्रभु दर्श किए, तब तक छाया था मान हिए ||

देवेन्द्र ने योग जुटाया था, तब तुमने दर्शन पाया था |
जैसे ही मानस्तम्भ देखा, नहीं रही हृदय में मद रेखा ||

निर्मल मन से सीढ़ी चढ़ते, प्रभु के चरणों में सिर धरते |
जैनेश्वरी दीक्षा धारण की, हर शंका तभी निवारण की ||

हुए चार ज्ञानधारी तत्क्षण, मन शुद्धि बढ़ी क्षण-क्षण प्रतिक्षण |
गणधर तुम पहले कहलाए, विपुलाचल पर यह फल पाए ||

आश्चर्य हुआ जग को अपार, जब खिरी दिव्यध्वनि सौख्यकार |
सब जीव करें आकंठ पान, पाया सबने दु:खों से त्राण ||

लघु द्वय भ्राता भी साधु बने, गणधर बनकर फिर कर्म हने |
थे शिष्य पाँच सौ जो संग में, वे भी रंग गए मुक्ति रंग में ||

पशुओं का भी कल्याण हुआ, उनको भी आतमज्ञान हुआ |
सामान्यजनों ने भी धारे, अणुव्रत आदिक भी स्वीकारे ||

हे स्वामी! यदि तुम न होते, प्रभु वाणी से वंचित रहते |
हैं हम पर ये उपकार महा, जो हमने आतमज्ञान लहा ||

इसलिए प्रथम सुमिरन करते, श्रद्धा प्रसून अर्पण करते |
हे गुरुवर! पायें ज्ञानदान, कर सकें निजातम का कल्याण ||

तुमने प्रभु को जितना जाना, अपने को उतना लघु माना |
ऐसा अपूर्व साहस कीना, मद कर्म शत्रु का हर लीना ||

जब जिनवर का निर्वाण हुआ, तब तुमको केवलज्ञान हुआ |
होती प्रभात में प्रभु पूजा, सन्ध्या को दीप जले दूजा ||

प्रात: मोदक ले आते हैं, मुक्ति का मोद मनाते हैं |
सन्ध्या को ज्ञानोत्सव करते, मन से अज्ञान तिमिर हरते ||

घर-घर में रंगोली करते हैं, समोसरण ही मानों रचते हैं |
तब बरसे थे बहुमूल्य रतन, बरसाते खील बताशे हम ||

प्रभु आयेंगे मेरे घर पर, इसलिए सजाते हैं सब घर |
घर द्वार स्वच्छ करते पहले, फिर साफ करें तन मन मैले ||

लो स्वागत को तैयार हुए, अंतर में हर्ष अपार हुए |
सचमुच प्रभु हिरदय में आओ,मन ज्ञान की ज्योति जगा जाओ ||

अब ‘अरुणा’ का अज्ञान हटे, यह चतुर्गति का चक्र घटे |
गुरु आनंदसागर आज्ञा से, पूजा-रचना की भावों से ||
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

गुरु गणधर के वचन पर, जो भी श्रद्धा लाए |
इस भव में सुख भोगकर, परभव-सुखी बनाए ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।