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Shri Neminaath Jin Pooja / श्री नेमिनाथ जिन पूजा

आचार्य श्री विद्याभूषण सन्मति सागर जी

स्थापना (शार्दूल विक्रीडित छन्द)

नेमीनाथ महान आप भुवि में, राजे विभो सर्वदा |
हो सम्राट विशाल सर्व वसुधा, आभा यथा नर्मदा ||
और स्याद्वाद विशाल धर्म सहिता, उर्जयन्त सिद्धीश्वरा |
हे आराध्य पुमान तारक विभो! तारो हमें हे! धीश्वरा ||

(दोहा)

राजुल तजि गिरनार से, मुक्ति वरी महाराज |
आ जाओ मम मन विभो! लोकत्रय सरताज ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं)
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)

अष्टक (नरेन्द्र छन्द)

जल से केवल तन हो निर्मल, तृषा रोग नित साले |
भाव भक्तिमय जल है पावन, मिथ्या मल धो डाले ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्दन की शुभ सुरभी पावन, क्षणिक गन्ध लहराती |
भाव भक्तिमय मलयागिरी से, स्वानुभूति गहराती ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

मुक्ता सम अक्षत से जिनवर, अक्षय पद नहिं पाते |
भाव भक्तिमय अक्षत निर्मल, शाश्वत रूप जगाते ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

पुष्पों की सुरभी से केवल, तृप्त नासिका होती |
आत्म गुणोंमय पुष्प वाटिका, मन दुर्गन्धी खोती ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

षटरस व्यंजन से हे स्वामी, तन का पोषण होता |
भाव भक्तिमय व्यंजन पाते, क्षुधा-रोग बल खोता ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दीपों की रत्नोंवत् पंक्ती, जग उजियाला करती |
सम्यग्ज्ञान शिखा जगती से, मिथ्यातम को हरती ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

धूप अनादी से अगनी में, हम बहुबार चढ़ाई |
कर्म कालिमा हे गुण सागर, किंचित् नहीं जलाई ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

नाना फल रसना रस पाकर, तन का पोषण कीना |
चतुर्गती फल दुखद निरंतर, मुक्ती फल नहिं चीना ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

वसुधा द्रव्यों का सम्मिश्रण, करके यतन कराया |
उत्पाद रु व्यय ध्रौव्य रूप सत्, निज में नहीं जगाया ||
स्वयंसिद्ध भगवान नेमि जिन, चरणों पूज रचावें |
निज के गुण निज में पाकर के, शिव सुख स्वयं जगावें ||

ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।

पञ्चकल्याणक अर्घ्य

(पाइता छन्द)

कार्तिक सुदि षष्ठी आयी, माँ गर्भ धार हरषायी |
हम पूजत भाव विलीना, नहिं धारें गर्भ नवीना | |१|

ॐ ह्रीं अर्हं कार्तिकशुक्ला षष्ठ्याँ गर्भमंगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्रावण शुक्ला षष्ठी है, प्रभु जन्म हुआ सुखधी है |
हम अर्चा विभो रचायें, निज जन्म मेट शिव पायें | |२|

ॐ ह्रीं अर्हं श्रावण शुक्ला षष्ठ्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्रावण शुक्ला छठ आयी, वैराग्य छटा लहरायी |
निर्जन वन ध्यान लगाया, निज समरस विभो जगाया | |३|

ॐ ह्रीं अर्हं श्रावण शुक्ला षष्ठ्याँ तपोमंगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

आश्विन सुदि एकम आयी, विभु केवल ज्योति जगायी |
स्याद्वाद धर्म उपदेशा, भव्यों का मिटा कलेशा | |४|

ॐ ह्रीं अर्हं आश्विन शुक्ला प्रतिपदायां केवलज्ञान प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सातें आषाढ़ सित शरणा, प्रभु मुक्ति सुन्दरी वरणा |
वसु गुणमय शाश्वत राजें, पूजत भवभव दुख भाजें | |५|

ओं ह्रीं अर्हं आषाढ़ शुक्ला सप्तम्यां मोक्षमंगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(दोहा)

श्री कृष्ण के भ्रात थे, बल अनन्त गुणधार |
महिमा वचनातीत है, वर्णन अनुभव सार ||

(शम्भु छन्द)

रागी अनुरागी वैरागी, विभू नेमीनाथ कहाये थे |
तन नीलवर्ण यादव वंशी, हरि चक्री मान गिराये थे | |१|
भव-भव निज पर उपकार किया, तीर्थंकर पुण्य सँजोया था |
वैभव उपयोग इन्द्र चक्री, अनुभूति बीज उर बोया था | |२|
कार्तिक शुक्ला षष्ठी सुर चय, माँ शिवादेवी उर आये थे |
शुभ स्वप्न फल समुद्र-विजय कहि, तीर्थंकर ईश बताये थे | |३|
पण-दश मास रत्नवृष्टि, सुरबाला माँ का बहुमान किया |
श्रावण शुक्ला षष्ठी चित्रा, शौरीपुर में अवतार लिया | |४|
सौधर्म इन्द्र शचि सुर परिकर, जगती पर स्वर्ग उतर आये |
पाण्डुक वन क्षीरोदधि लाकर, जन्म-अभिषेक शिशु करवाये ||५|
वस्त्राभूषण भूषित कर शचि, हरि शंख चिह्न उद्घोष किये |
स्वर्गों से भोजन, क्रीड़ा की, आते सामग्री देव लिये ||६|
जलक्रीड़ा में हँसते रिस हो, भाभी ने तीखा व्यंग्य किया |
क्रीड़ा कर शेषनाग शैय्या, अरु शंख कृष्ण का फूंक दिया ||७|
शक्ती लख नारायण विह्वल, निज मन में अनहोनी ठानी |
छप्पन कोटि बराती हेतु, पशु बँधवाये कर मनमानी ||८|
श्रावण शुक्ला षष्ठी तिथि को, जूनागढ़ ब्याहन आये थे |
पशुओं का करुणा क्रन्दन सुन, वैराग्य भावना भाये थे ||९|
राजुल दुल्हन ले वरमाला, वरने नेमी को खड़ी हुईं |
नेमी की दृष्टि राजुल तज, मुक्ती रमणी की ओर हुई ||१०|
सिरमौर तजा कंगन तोड़ा, गिरनारी चढ़ दीक्षा धारी |
क्षण में क्या थे! क्षण में क्या हैं! कर्मों की कैसी बलिहारी ||११|
राजुल को परिजन समझायें, हम दूजा ब्याह रचायेंगे |
राजुल बोली मम एक-पति, हम भी गिरनारी जायेंगे ||१२|
करुणा स्वर दृग् अश्रु भरे, राजुल नेमी पग लिपट गई |
नव भव की प्रभु मम प्रीती को, ठुकराते क्यों! क्या खता भई ||१३|
स्वामिन् महलों को लौट चलो, मम आशा विभो! अधूरी है |
मानों नेमी यह बोल उठे, राजुल! मुक्ति नहीं अब दूरी है ||१४|
झूठे सब नाते रिश्ते हैं, नश्वर काया नश्वर माया |
भव-भव में इन्द्रिय भोग किया, पर योगानन्द नहीं पाया ||१५|
यदि शाश्वत प्रियतम को चाहो, राजुल तुम भी दीक्षा धारो |
कामादि विकार भवार्णव से, जैसे हो निज को निरवारो ||१६|
वर नगर द्वारिका के राजा, वरदत्त विभो आहार दिये |
चउ ज्ञान विभूषित मुनिश्वर ने, गिरनारी चढ़ तप ध्यान किये |१७|
आश्विन शुक्ला एकम निज रम, चउ कर्म घातिया ध्वस्त किये |
कैवल्य-मुक्ति के स्वामी बन, भवि समवशरण उपदेश दिये ||१८ |
आषाढ़ शुक्ल सप्तमि गिरि पर, अवशेष कर्म चकचूर किये |
मुक्ती-ललना सह कर शादी, शाश्वत रम ज्ञानानन्द पिये ||१९|
गिरनारी नेमी वन्दन से, कर्मों के बन्धन खुल जाते |
‘सन्मति’ समता सुख अनचाहे, भक्ती से मनवाँछित पाते |२०|

(दोहा)

राजुल तज मुक्ती वरी, लोकोत्तर गुणसार |
अर्पित हैं भक्ती सुमन, गिरनारी भव क्षार ||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम: अनर्घ्य पद प्राप्तये पूणार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वयं आत्म पुरुषार्थ से, हुए स्वयं जगदीश |
विश्व शान्ति सुख सम्पदा, सन्मति चरणों शीश ||
।।इत्याशीर्वाद पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।