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Shri Parashavnath Jin Pooja (Ravindra Ji) / श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा (रवीन्द्रजी)

कवि श्री रवीन्द्र

(पूजन विधि निर्देश)

(शंभु छन्द)

हे पार्श्वनाथ! हे पार्श्वनाथ! तुमने हमको यह बतलाया |
निज पार्श्वनाथ में थिरता से, निश्चय सुख होता सिखलाया ||
तुमको पाकर मैं तृप्त हुआ, ठुकराऊं जग की निधि नामी |
हे रवि सम स्वपर प्रकाशक प्रभु! मम हृदय विराजो हे स्वामी ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं)
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्रा मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)

जड़ जल से प्यास न शान्त हुई, अतएव इसे मैं यहीं तजूँ |
निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वभाव, पहिचान उसी में लीन रहूँ ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्दन से शान्ति नहीं होगी, यह अन्तर्दहन जलाता है |
निज अमल भावरूपी चन्दन ही, रागाताप मिटाता है |
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु उज्ज्वल अनुपम निज स्वभाव ही, एकमात्र जग में अक्षत |
जितने संयोग वियोग तथा, संयोगी भाव सभी विक्षत ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

ये पुष्प काम-उत्तेजक हैं, इनसे तो शान्ति नहीं होती |
निज समयसार की सुमन माल ही कामव्यथा सारी खोती ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़ व्यंजन क्षुधा न नाश करें, खाने से बंध अशुभ होता |
अरु उदय में होवे भूख अत:, निज ज्ञान अशन अब मैं करता ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूंII |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़ दीपक से तो दूर रहो, रवि से नहिं आत्म दिखाई दे |
निज सम्यक-ज्ञानमयी दीपक ही, मोह-तिमिर को दूर करे ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

जब ध्यान अग्नि प्रज्ज्वलित होय, कर्मों का ईंधन जले सभी |
दश-धर्ममयी अतिशय सुगंध, त्रिभुवन में फैलेगी तब ही ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

जो जैसी करनी करता है, वह फल भी वैसा पाता है |
जो हो कर्त्तत्व-प्रमाद रहित, वह मोक्ष महाफल पाता है ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अरचूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल फलं निर्वपामीति स्वाहा।

है निज आतम स्वभाव अनुपम, स्वभाविक सुख भी अनुपम है
अनुपम सुखमय शिवपद पाऊं, अतएव अर्घ्य यह अर्पित है ||
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वाँछा नहिं लेश रखूँ |
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अर्चूं |
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक अर्घ्य

(दोहा)

दूज कृष्ण वैशाख को, प्राणत स्वर्ग विहाय |
वामा माता उर वसे, पूजूँ शिव सुखदाय ||
ॐ ह्रीं वैशाख कृष्ण द्वितीयायां गर्भमंगलमण्डिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पौष कृष्ण एकादशी, सुतिथि महा सुखकार |
अन्तिम जन्म लियो प्रभु, इन्द्र कियो जयकार ||
ॐ ह्रीं पौष कृष्ण-एकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पौष कृष्ण एकादशी, बारह भावन भाय |
केशलोंच करके प्रभु, धरो योग शिव दाय ||
ॐ ह्रीं पौष कृष्ण-एकादश्यां तपोमंगल मंडिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शुक्लध्यान में होय थिर, जीत उपसर्ग महान |
चैत्र कृष्ण शुभ चौथ को, पायो केवलज्ञान ||
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण-चतुर्थ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्रावण शुक्ल सु सप्तमी, पायो पद निर्वाण |
सम्मेदाचल विदित है, तव निर्वाण सुथान |
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्याम् मोक्षमंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(गीता छन्द)

हे पार्श्व प्रभु! मैं शरण आयो, दर्श कर अति सुख लियो |
चिन्ता सभी मिट गयी मेरी, कार्य सब पूरण भयो ||

चिन्तामणी चिन्तत मिले, तरु कल्प माँगे देत हैं |
तुम पूजते सब पाप भागें, सहज सब सुख देत हैं ||

हे वीतरागी नाथ! तुमको, भी सरागी मानकर |
माँगें अज्ञानी भोग वैभव, जगत में सुख जानकर ||

तव भक्त वाँछा और शंका, आदि दोषों रहित हैं |
वे पुण्य को भी होम करते, भोग फिर क्यों चहत हैं ||

जब नाग और नागिन तुम्हारे, वचन उर धर सुर भये |
जो आपकी भक्ति करें वे, दास उन के भी भये ||

वे पुण्यशाली भक्त जन की, सहज बाध को हरें |
आनन्द से पूजा करें, वाँछा न पूजा की करें ||

हे प्रभो! तव नासाग्र दृष्टि, यह बताती है हमें |
सुख आत्मा में प्राप्त कर लें, व्यर्थ न बाहर में भ्रमें ||

मैं आप सम निज आत्म लखकर, आत्म में थिरता धरूं |
अरु आशा-तृष्णा से रहित, अनुपम अतीन्द्रिय सुख भरूँ ||

जब तक नहीं यह दशा होती, आपकी मुद्रा लखूँ |
जिनवचन का चिन्तन करूँ, व्रत शील संयम रस चखूँ ||

सम्यक्त्व को नित दृढ़ करूँ, पापादि को नित परिहरूँ |
शुभ राग को भी हेय जानूँ, लक्ष्य उसका नहिं करूँ ||

स्मरण ज्ञायक का सदा, विस्मरण पुद्गल का करूँ |
मैं निराकुल निज पद लहूँ प्रभु! अन्य कुछ भी नहिं चहुँ ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

पूज्य ज्ञान वैराग्य है, पूजक श्रद्धावान |
पूजा गुण अनुराग अरु, फल है सुख अम्लान ||
।। पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।