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Shri Parshvanath Jin Poojan (Badagaon) / श्री पार्श्वनाथ जिन पूजन (बड़ागाँव)

आचार्य श्री विद्याभूषण सन्मतिसागर जी

(पूजन विधि निर्देश)

(गीतिका छन्द)

किया नहिं बैर कमठासुर, क्षमा वसुधा सुहाई है |
जगी करुणा अमल हृदय, नाग-नागिन दुहाई है ||
धरी दीक्षा वरी मुक्ती, नाम पारस सुहाया है |
विश्व अतिशय चमत्कारी, तीर्थ बड़ागाँव आया है ||

(दोहा)

माँ वामा के लाड़ले, अश्वसेन सिरताज |
मन मंदिर राजो विभो, पार्श्वनाथ हितराज ||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट! (सन्निधिकरणम्)

(शम्भू छन्द)

हे जन्म-मृत्यु से रहित रूप! जग-राग-द्वेष भी लेश नहीं |
क्रोधादिक मल से अमल विभो! पर-मल का है परिवेश नहीं ||
वैभाविक मल से अमल बनूँ, प्रासुक जल चरण चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||१||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति. स्वाहा ।

शीतल हो आप निराकुल हो, पर-परिणति का परिवेश नहीं |
सुख-शान्ति-सुधा निज में पीते, आकुलता मन में लेश नहीं ||
आकुलित हुआ मैं विषयों में, शुभ चन्दन चरण चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||२||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

अक्षत हो आप अमल प्रभुवर! शाश्वत सुख को उपजाया है |
अविकार आत्मरस में रम कर, निज अनुभव को प्रगटाया है ||
निज अक्षत पद के हेतु नाथ! अक्षत मैं चरण चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||३||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

स्याद्वादमयी सत्-पुष्पों से, निज गुण फुलवारी महकायी |
आत्मानुभूति की गन्ध विभो! पर-गन्ध नहीं तुमको भायी ||
विषयों की गंध मिटाने को, निजगुणमय पुष्प चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||४||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।

तुम क्षुधा रोग से परे विभो! खाने-पीने की चाह नहीं |
निज अनुभव नित आस्वादन कर, पर-परिणति की परवाह नहीं ||
मम क्षुधा विजय हो हे स्वामिन्! चारु चरु चरण चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||५||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।

हैं सकल द्रव्य के गुण अनन्त, पर्याय अनन्ते राजत हैं |
दर्पणवत् केवलज्ञान विभो! जैसे के तैसे साजत हैं ||
निज केवलज्ञान जगाने को, रत्नोंमय दीप चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||६||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् निर्वपामिति स्वाहा।

वसुकर्म दहन करके प्रभुवर! वसु-गुण निज में प्रगटाये हैं |
दोषों का धुआँ उड़ा करके, सद्गुण निज में हुलसाये हैं ||
निज-कर्म दहन के हेतु विभो! अनुभव-घट धूप चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||७||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: अष्टकर्म दहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।

फल रत्नत्रय का मुक्ति विभो! पुरुषार्थ प्रबल से प्राप्त किया |
फल श्रेष्ठ सभी पाये निज में, नित शांति-सुधा रस स्वाद लिया ||
अनुभव शिवफल मैं प्राप्त करूँ, प्रासुक फल चरण चढ़ाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||८||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: मोक्षफल प्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।

उपसर्ग सहा कमठासुर का, उपसर्ग विजेता कहलाये |
सुर पद्मावति-धरणेन्द्र तभी, पूरब उपकार सुमिर आये ||
यह अर्घ्य सँजोकर के प्रभुवर, निज में सुख साता पाता हूँ |
हे बड़ागाँव पारस बाबा! सुख-सम्पति हो सिर नाता हूँ ||९||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(दोहा)

बाल ब्रह्मचारी विभो, बड़ागाँव भगवान |
गुणमाला वर्णन करुँ, मिले आत्म गुणखान ||

(पद्धरि छन्द)

जय पारसनाथ अनाथ नाथ, सुरगण नित चरणन नमत माथ |
अद्भुत तुमरी महिमा अपार, शब्दों में जाती नहिं उचार ||१||

दश अतिशय-युत तुम जन्म लीन, इन्द्रादि मेरु अभिषेक कीन |
जब युवा भये अतिशय विशाल, शादी की चर्चा थी खुशाल ||२||

शादी से ली तुम दृष्टि मोड़, लीना मुक्ती से नेह जोड़ |
जलते लखि नागिन-नाग दोय, णमोकार सुन गये देव होय ||३||

होकर विराग दीक्षा-विभोर, तप तपें दृष्टि इन्द्रिय न ओर |
सहसा कमठासुर कियो आन, उपसर्ग कष्ट दीनो महान ||४||

सुर पद्मावति-धरणेन्द्र दोय, पूरब भव मन्त्र प्रभाव जोय |
आये उपकारी जान नाथ, कमठासुर चरणन धरो माथ ||५||

घाती कर्मनि की प्रकृति नाश, अष्टादश दोष नशाय खास |
केवलज्ञानी होकर अशेष, तुम प्रकट लखे जग अर्थ शेष ||६||

प्रभु समवशरण महिमा अपार, उपदेश सुनै सब भेद टार |
प्रभु स्याद्वाद वाणी महान, एकान्त नशा सब का जहान ||७||

तुम भेदभाव सबका मिटाय, रत्नत्रय से शिवपथ दिखाय |
चौंतीसों अतिशय और चार, अनन्त सोहें वसु प्रातिहार्य ||८||

हैं गुण अनन्त महिमा जहान, जग में अनुपम हैं आप शान |
जो शरण आपकी गहे आय, फिर आधि-व्याधि नहिं रहे ताय ||९||

पंगू बहरा या मूक कोय, तुम भक्त विषें नहिं रोग होय |
निर्धन निपुण्य प्रभु शरण आय, मनवांछित फल को लेत पाय ||१०||

सम्यक् भक्ती जो करे आप, नाशे विभाव भव मिटे ताप |
यश चहुँदिशि में वायु समान, छाया मेटो संकट महान ||११||

तुम वीतराग मैं राग-लीन, प्रभु गुण-निधान, मैं राग-धीन |
केवलज्ञानी हो शुद्ध बुद्ध, मैं ज्ञान-रहित विषयन प्रबुद्ध ||१२||

टंकोत्कीर्ण विभु शुद्ध भाव, मुझमें पर-परिणति का लगाव |
प्रभु ज्ञानानंद विलीन आप, नित निज अनुभव की जपत जाप ||१३||

वैभव नहिं भव-सुख चाह मोय, शिव-सुन्दरि से मम नेह होय |
अरजी ‘सन्मति’ करुणा महान, तुम से गुण हों मुझमें प्रधान ||१४||

(दोहा)

जन मन की चिन्ता हरो, हे पारस ऋषिराज |
बड़ागाँव अतिशय बड़ा, सिद्ध होंय सब काज ||
ॐ ह्रीं अर्हं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम: अनर्घ्यपद प्राप्तये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वयं आत्म पुरुषार्थ से, हुए स्वयं जगदीश |
विश्व शान्ति सुख-सम्पदा, ‘सन्मति’ चरणों शीश ||
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।