जिस समय अधर्म बढ़ रहा था, धर्म के नाम पर असंख्य पशुओं को यज्ञ की बलि-वेदी पर होमा जाता था, संसार में अज्ञान छा रहा था और जब संसार के लोग आत्मा के उद्धार करनेवाले सत्य-मार्ग को भूल रहे थे, ऐसे भयंकर समय में जगत् के प्राणियों को सत्यमार्ग दर्शाने व दु:खपीड़ित विश्व को सहानुभूति का अंतिम-दान देने और सार्वभौमिक परमधर्म अहिंसा का संदेश सुनाने के लिए इस पुनीत भारत वसुंधरा पर ईसा से 599 वर्ष पूर्व कुंडपुर में भगवान् महावीर ने जन्म धारण किया था | तीर्थंकर महावीर प्रभु का जन्म तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ जी के निर्वाण के 145 वर्ष ढ़ाई माह बाद हुआ था |
अपने दिव्य-जीवन में उन्होंने अहिंसा, विश्वमैत्री और आत्मोद्धार का उत्कृष्ट आदर्श उपस्थित किया था और अन्त में अपने पवित्र लक्ष्य को स्वयं प्राप्त कर लिया था। भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य के आदर्श को उपस्थित करने के लिये आजन्म-ब्रह्मचारी रहते हुए दुर्द्धर तप धारणकर 42 वर्ष की आयु में ही आत्मा के प्रबलशत्रु चार घातिया कर्मों का नाशकर लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और भव्यजीवों को दिव्यध्वनि द्वारा आत्मा के उद्धार का मार्ग बताया। 72 वर्ष की आयु के अन्त में श्री शुभ मिति कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के अन्त समय (अमावस्या के अत्यंत प्रात:काल) ‘स्वाति’ नक्षत्र में मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त किया।
उसी दिन सायंकाल भगवान् के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी को केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त हुई और देवों ने रत्नमयी दीपकों द्वारा प्रकाश कर उत्सव मनाया तथा हर्ष-सूचक मोदक (नैवेद्य) आदि से पूजा की। तब से इन दोनों महान् आत्माओं की स्मृतिस्वरूप यह निर्वाणोत्सव समस्त भारतवर्ष में मनाया जाता है।
सच्ची लक्ष्मी तो आत्मा के गुणों का पूर्ण विकास, केवलज्ञान हो जाना तथा मोक्ष प्राप्ति ही है। अत: हमें उस दिन महावीर स्वामी, गौतम-गणधर और केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए। इन गुणों की पूजा करने पर रुपया-पैसा आदि सांसारिक लक्ष्मी प्राप्त होना तो साधारण सी बात हैं।
कुछ लोग इसी पवित्र-दिन जुआ आदि खेलते हैं। ये सब मिथ्यात्व को पोषण करनेवाली अधार्मिक प्रवृत्तियाँ हैं। इन सब कुरीतियों को दूरकर हमें जैनशास्त्रानुसार सम्यग्दर्शन को पुष्ट करने वाली क्रियाओं द्वारा विशेष उत्साहपूर्वक दीपावली मनानी चाहिये। जिसमें धार्मिक भाव सदा जागृत रहें। इस उद्देश्य को बहुत से सज्जन जानकर भी लक्ष्मी (रुपयों पैसों) की पूजा करते हैं, यह उनकी नितांत भूल है। हम यह जानते हैं कि वे व्यापारी हैं और व्यापार-विषयक लाभ की आकांक्षा से ही वे ऐसा करते होंगे। किन्तु उन्हें यह वास्तविक रहस्य भी समझ लेना चाहिए कि धन का जो लाभ होता है, वह अन्तराय-कर्म के क्षयोपशम से होता है। अन्तराय-कर्म का क्षयोपशम शुभ-क्रियाओं से हो सकता है, रुपये-पैसे की पूजा से नहीं।
दीपमालिका के दिन प्रात:काल उठकर सामायिक, स्तुतिपाठ कर, शौच-स्नानादि से निवृत्त हो श्री जैनमंदिर में पूजन करनी चाहिए और निर्वाणकल्याणक (पृष्ठ 53), निर्वाणक्षेत्र-पूजा (पृष्ठ 312, 321), निर्वाणकांड (पृष्ठ 396), महावीराष्टक (पृष्ठ 577) बोलकर निर्वाणलड्डू चढ़ाना चाहिए।