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Upsarg-Har Stotra / उपसर्ग-हर स्तोत्र

आचार्य भद्रबाहु

जिन व्यक्तियों की कुंडली में कालसर्प योग हो उसे उपसर्ग-हर स्तोत्र का पाठ, इस दोष को शांत कर जीवन में आशातीत सफलता दिलाता है, जैन-जैनेतर ग्रंथों में इसकी महत्ता है ।

पाठ करने से पूर्व सात बार बोलें: ‘श्रीभद्रबाहुप्रसादात् एष योग: फलतु’

उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघण-मुक्कं |
विसहर-विस-णिण्णासं, मंगल-कल्लाण-आवासं ||१||
अर्थ– प्रगाढ़ कर्म-समूह से सर्वथा मुक्त, विषधरों के विष को नाश करने वाले, मंगल और कल्याण के आवास तथा उपसर्गों को हरने वाले भगवान् पार्श्वनाथ की मैं वन्दना करता हूँ।

विसहर-फुलिंगमंतं, कंठे धारेदि जो सया मणुवो |
तस्स गह-रोग-मारी, दुट्ठ-जरा जंति उवसामं ||२||
अर्थ– विष को हरने वाले इस मंत्ररूपी स्फुलिंग (ज्योतिपुंज) को जो मनुष्य सदैव अपने कंठ में धारण करता है, उस व्यक्ति के दुष्ट ग्रह, रोग, बीमारी, दुष्ट शत्रु एवं बुढ़ापे के दु:ख शांत हो जाते हैं।

चिट्ठदु दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होदी |
णर-तिरियेसु वि जीवा, पावंति ण दुक्ख-दोगच्चं ||३||
अर्थ– हे भगवन्! आपके इस विषहर मंत्र की बात तो दूर रहे, मात्र आपको प्रणाम करना भी बहुत फल देने वाला होता है। उससे मनुष्य और तिर्यंच गतियों में रहने वाले जीव भी दु:ख और दुर्गति को प्राप्त नहीं करते हैं।

तुह सम्मते लद्धे, चिंतामणि-कप्पपावय-सरिसे |
पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ||४||
अर्थ- वे व्यक्ति आपको भलिभाँति प्राप्त करने पर, मानो चिंतामणि और कल्पवृक्ष को पा लेते हैं, और वे जीव बिना किसी विघ्न के अजर, अमर पद मोक्ष को प्राप्त करते हैं |

इह संथुदो महायस! भत्तिब्भर णिब्भरेण हिदयेण |
ता देव! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंदं ||५||
अर्थ-हे महान् यशस्वी ! मैं इस लोक में भक्ति से भरे हुए हृदय से आपकी स्तुति करता हूँ। हे देव! जिनचन्द्र पार्श्वनाथ ! आप मुझे प्रत्येक भव में बोधि (रत्नत्रय) प्रदान करें |

ॐ अमरतरु-कामधेणु-चिंतामणि-कामकुंभभमादिया |
सिरि-पासणाह-सेवाग्गहणे सव्वे वि दासत्तं ||६||
अर्थ– श्री पार्श्वनाथ भगवान् की सेवा ग्रहण कर लेने पर ओम्, कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि रत्न, इच्छापूर्ति करने वाला कलश आदि सभी सुखप्रदायक कारण उस व्यक्ति के दासत्व को प्राप्त हो जाते हैं ।

उवसग्गहरं त्थोत्तं, कादूणं जेण संघकल्लाणं |
करुणायरेण विहिदं, स भद्दबाहू गुरु जयदु ||७||
अर्थ– जिन के द्वारा संघ के कल्याणकारक यह ‘उपसर्गहर स्तोत्र’ रचा गया है, वे करुणाकर आचार्य गुरु भद्रबाहु सदा जयवन्त हों ।